Monday, November 5, 2012

सिस्टम में खोट


 

अखबार का हॉकर सड़क पर चिल्ला रहा था
कि सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है
अब कड़े परिश्रम, अनुशासन और दूरदर्शिता के अलावा
और कोई रास्ता नहीं बचा है
एक रास्ता और है कि
सरकार इस जनता को भंग कर दे
और अपने लिए नई जनता चुन ले


 जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त की इन पंक्तियों पर एक बार फिर से विचार करने की जरूरत है। देश महंगाई, भ्रष्टाचार और अव्यवस्था से त्रस्त है। समस्याएं घटने की बजाए सुरसा के बदन की तरह बढ़ रही हैं। और जिनके हाथ में कमान है..वो किंकर्तव्यं विमूढ़ है। वो ये तय नहीं कर पा रहे कि अपनी कमियों का ठीकरा किस पर फोड़ा जाए। दिल्ली के रामलीला मैदान से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी औऱ कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के भाषण से तो यही लगता है। सोनिया गांधी जहां हर समस्या के लिए विपक्ष को जिम्मेदार मानती हैं..तो प्रधानमंत्री विपक्ष का डटकर मुकाबला करने का कार्यकर्ताओँ को भरोसा देते हैं। युवराज इनसे एक कदम आगे बढ़ते हैंऔर हर मर्ज के लिए सिस्टम को जिम्मेदार ठहरा देते हैं.

 बतौर राहुल गांधी, ''आज हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या हमारा राजनीतिक सिस्टम है। आम आदमी और कमजोरों के लिए यह सिस्टम बंद है। आम आदमी इसका नतीजा रोज सहता है। ..यह सिस्टम आम आदमी को ठोकर मारता रहता है, सिस्टम के दरवाजे बंद है। और वही लोग जो सिस्टम को चलाते हैं वही एक दूसरे पर पत्थर मारते रहते हैं। विपक्ष आम आदमी के लिए राजनीति के दरवाजे खोलने की बात नहीं करता है। वो राजनीतिक व्यवस्था को बदलने की बात नहीं करते हैं। आज आम आदमी की आवाज राजनीतिक व्यवस्था में नहीं सुनी जा रही है।'
 यानी मौजूदा व्यवस्था के सबसे ताकतवर तिकड़ी कहती है कि व्यवस्था को बदल दो। साथ में राहुल गांधी कहते हैं कि ये काम कांग्रेस ही कर सकती है। राहुल के बयानों से शोले का ये संवाद याद आ जाता है कि ..गब्बर के आतंक से एक ही शख्स बचा सकता है..वो है खुद गब्बर सिंह। सवाल ये है कि अगर हर मर्ज के लिए ये सिस्टम जिम्मेवार है, तो इसके जवाबदेही किस पर है। आखिर सिस्टम को नपुंसक किसने बनाया। सिस्टम का दरवाजा आम आदमी के लिए किसने बंद किया। क्या राहुल गांधी और उनके सिपहसलार इसका जवाब देंगे। इससे पहले उनके पिता और तत्कालीन प्रधानमंत्री ने भी कहा था कि आम आदमी तक सौ में से 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं। इतिहास गवाह है कि अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल को छोड़ दिया जाए तो अब तक की सत्ता कांग्रेस के इशारे पर ही चलती रही है।  राहुल गांधी और उनकी पार्टी को ठोस कदम उठाने से किसने रोका है। अगर उन्हें ये लगता है कि सिस्टम काम नहीं कर रहा तो उन्हें भंग क्यों नहीं करते। वो इस सिस्टम में बदलाव के लिए उनका साथ क्यों नहीं देते जो सड़क पर आकर बदलाव की लड़ाई लड़ रहे हैं। जो बातें रामलीला मैदान से राहुल गांधी कह रहे हैं वही बातें रामलीला मैदान से ही और जंतर-मंतर से  अन्ना हजारे और उनके सहयोगी भी कहते आ रहे हैं। राहुल बाबा अगर सच में समस्या का समाधान चाहते हैं तो उन्हें चिकनी चुपड़ी बातें कहकर खुद की ब्रांडिंग करने की बजाय सड़क पर उतर कर सही पहल करनी होगी। आम आदमी के साथ खाना खाने की बजाय आम आदमी के स्तर पर आकर सोचना होगा.. तब ही वास्तव में बदलाव हो सकता है। 





Saturday, October 13, 2012

आम आदमी-जिंदाबाद!


आम आदमी- जिंदाबाद। देश का नेता कैसा हो- आम आदमी जैसा हो। जो ये नारा लगा रहा है-उसकी टोपी पर लिखा हुआ है- मैं हूं आम आदमी। नारे लगाने वाले और उनका साथ देने वाले सभी ये जयकारा लगाते समय मुस्कुरा रहे थे। जाहिर है इस नारे के साथ उनकी गंभीरता साफ झलक रही थी। जिसके खिलाफ ये नारे लगाये जा रहे हैं, नारे में उनका हाथ भी आम आदमी के साथ ही है। मतलब आम आदमी से न इनका सरोकार है ना उनका। एक और बात। ऐसा कम ही होता है कि कोई व्यक्ति अपना जयकारा खुद लगाता हो। मसलन रामअवतार खुद ये नारे नहीं लगाते कि देश का नेता कैसा हो रामअवतार के जैसा हो। रामअवतार- जिंदाबाद। हां, कमेडी सर्कस के स्टेज पर ऐसा देखा जा सकता है। कमेडी सर्कस के सटायर पर भी खूब तालियां बजती हैं. अरविंद केजरीवाल के इस पैंतरे पर भी खूब तालियां बज रही है। मेरा मतलब ये कतई नहीं है कि अरविंद केजरीवाल कमेडी कर रहे हैं। अब नेता बन गये हैं-तो थोड़ा बहुत अभिनय तो चलता ही है। भीड़ जुटाने के लिए नौटंकी तो करनी ही पड़ती है। गोया मजाक-मजाक में ही सही आम आदमी के नारे तो लगे। इसके लिए केजरीवाल को साधुवाद।  

Thursday, October 11, 2012

व्यवस्था का बलात्कार



हरियाणा में एक और बलात्कार। पीड़ित दलित समुदाय से। इस तरह के समाचार लगातार मिल रहे हैं। ये सवाल आब आम हो गया है कि आखिर वहां हो क्या गया है। सवाल पूछने वालों में से कुछ के भाव संजीदा हैं। कुछ चटकारे लेने के अंदाज से पूछते हैं। बहरहाल हकीकत ये है कि वहां नया कुछ नहीं हुआ। वही लोग। वही पुलिस ।वही सरकार। वही व्यवस्था। वही सोच।  फिजा में कोई बदलाव नहीं। हां, मीडिया का ध्यान इन वारदातों की ओर जरुर गया है। जब मीडिया में खबरें आने लगी हैं, तो थाने में मामले दर्ज भी होने लगे हैं। ये बात और है कि ये अब तक मुद्दा नहीं बना है।
मुद्दा बने भी तो कैसे। महिला आयोग के लिए ये मुद्दा इसलिए नहीं है कि पीड़ित लो प्रोफाइल के लोग हैं। एससी-एसटी आयोग खानापूर्ति करने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि इसके अध्यक्ष सत्तारुढ़ दल के नुमाइंदे हैं। आलाकमान को नाराज नहीं कर सकते। आलाकमान का दौरा होता है। वो भी रस्म अदायगी। पीड़ितों को मरहम लगाने के बदले बयानों का जख्म देकर जवाबदेही पूरी। बोलीं- देश भर में ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। आज कल हर वारदात पर बयान देने को आतुर बाबा रामदेव ने ऐसी प्रतिक्रिया दी, जिसकी चर्चा भी मुनासिब नहीं। उनके बयानों में व्यक्तिगत कुंठा ज्यादा दिखा। किसी महिला के प्रति सहानुभूति कम विपक्ष के लोग सियासी नफा-नुकसान का हिसाब लगाने में मशगूल। 
 ओम प्रकाश चौटाला ने साफ कहा कि रेप कम करने के लिए शादी की उम्र घटा दो। हालांकि बाद में वो किंतु-परंतु लगाते दिखे। अब उन्हें ये कौन बताए कि पीड़ितों में किसी की उम्र छह साल है तो किसी की 40 साल भी। कोई कहता है कि 90 फीसदी महिलाएं ऐसे केस में सहमत होती हैं। अब भला ऐसे लोगों को बलात्कार की परिभाषा कौन समझाएँ। अगर समहति है तो फिर बलात्कार कैसे
हम लोगों की आदत हो गयी है कि हम हर मसले का सियासी समाधान ढूंढ़ते हैं। भले ही मसला सामाजिक हो या सांस्कृतिक। हरियाणा में दलितों की जो स्थिति है वो किसी से छुपी नहीं है। नारों में नं. 1 हरियाणा जरुर हो सकता है लेकिन सामाजिक संतुलन के हिसाब से यहां की स्थिति बदतर है। ऊंच-नीच का फासला बहुत लंबा है। समृद्ध और दबंग किस्म के लोग दलितों के जर जोरु और जमीन पर अपना नैसर्गिक अधिकार समझते हैं. उनकी आबरू से खेलना इनके लिए शगल है। बलात्कार की घटनाएँ पहले भी होती रही हैं। अब भी हो रही है। शायद आगे भी होती रहेगी। इसलिए मौजूदा व्वस्था में ये कोई मुद्दा नहीं है। खाप पंचायतें जो खुद को समाज और संस्कृति के ठेकेदार  समझती हैं, उनके लिए बलात्कार कोई मसला नहीं असल मसला शादी के तरीके और उम्र है।
   बहरहाल, हरियाणा में बलात्कार की जो वारदातें हो रही हैं दरअसल ये हमारे सामजिक ताने-बाने की पोल खोल रही हैं। हम राजनीतिक सुधार और आर्थिक सुधार की बातें तो करते हैं..लेकिन जो हमारा आधार है उसमें सुधार की चर्चा नहीं करते। हम अभी भी सामंती सोच से बाहर नहीं आ रहे। जब तक ये समाज महिला, दलति और वंचितों के अस्तित्व को नहीं समझेगा तब तक ऐसी घटनाएँ सामने आती रहेगी। ये घटनाएं अखबार और मीडिया की सुर्खियां बन कर फिर शांत हो जाएंगी। लोक-लाज के नाम पर महिलाएं खुदकुशी करती रहेंगी।ये सिलसिला तब तक जारी रहेगा जब तक हम मूक दर्शक बने रहेंगे.

Thursday, September 20, 2012

आंदोलन का डेथ सर्टिफिकेट


आंदोलन का डेथ सर्टिफिकेट

यह तो होना ही था। 19 सितंबर को टीम अन्ना के विघटन की औपचारिक घोषणा हो गई। यूं कहें कि एक संभावनाशील आंदोलन की मौत का प्रमाण- पत्र जारी कर दिया गया। इस आंदोलन की मौत जंतर मंतर से 'राजनतीक विकल्प' के ऐलान के साथ ही हो गई थी. गोया ये आंदोलन टीम अन्ना के हिसार कूच के बाद से ही बीमार हो गया था। जो सूजन थी;  जानकार उससे चिंतित थे, लेकिन अरविंद और किरण बेदी उसे मोटापा कह रहे थे। अन्ना हजारे भी इससे बेखबर रहे। दरअसल अब तक वैरागी का जीवन जी रहे अन्ना हजारे अपने इस नए परिवार के मोह-पाश में इस कदर जकड़े रहे  कि पड़ोसियों की अच्छी सलाह भी उन्हें उनकी जलन (इर्ष्या) नजर आती रही।
बहरहाल.. देर से ही सही अन्ना और अरविंद के रिश्तों का सच उजागर हो चुका है। अन्ना ने केजरीवाल को उनकी राजनीतिक पार्टी के गठन के लिए शुभकामनाएं दी है। लेकिन अपना नाम और तस्वीर लगाने से मना कर दिया है। वैसे भी अरविंद के सिपाहिय़ों ने 'मैं भी अन्ना' की जगह मैं भी केजरीवाल की टोपी पहले ही पहन ली थी.. हां वो अब अन्ना को 'टोपी' नहीं पहना सकेंगे।
रामलीला मैदान और जंतर मंतर पर किलाकारियों के साथ तिरंगा लहराने वाली किरण बेदी भी अब केजरीवाल के साथ नहीं हैं। किरण बेदी की अन्ना के साथ भी रहने की उम्मीद नहीं हैं. इस पूर्व आईपीएस अधिकारी की अपनी महत्वाकांक्षा हैं। दिल्ली पुलिस की टोपी उतरने के बाद से ही वो भगवा टोपी पहनने के फिराक में हैं। कुछ लोगों का तो ये भी आरोप है कि इन्हीं दोनों ने अपनी-अपनी महात्वाकांक्षा के लिए सरकार और अन्ना में लोकपाल पर समझौता नहीं होने दिया। बहरहाल अन्ना हजारे ने टीम के बिखरने को दुर्भाग्यपूर्ण कहा है। उन्होंने इसके लिए बहुत हद तक जिम्मेवार अरविंद केजरीवाल पर हलमा करते हुए कहा  कि अगर जनता का भारी समर्थन राजनीतिक दल के गठन के पक्ष में था तो फिर ये बैठक बुलाई ही क्यों गई
खास बात ये है कि अब तक जिन आंकड़ों पर अन्ना समेत पूरी टीम इठलाती रही, अन्ना हजारे ने उन्हें ही खारिज कर दिया. उन्होंने  इंडिया एगेंस्ट करप्शन की ओर से कराए गए जनमत सर्वेक्षण को भी निरस्त कर दिया और कहा कि मुझे फेसबुक, इंटरनेट के माध्यम से कराए गए सर्वेक्षण पर भरोसा नहीं है।    

अन्ना के बयान से सोशल साइट्स के दीवानों को भी ठेस लगी होगी। विघटित टीम के सदस्यों ने भी अब अन्ना को कोसना शुरू कर दिया है। इनका कहना है कि दिल्ली के लोगों ने अन्ना की छवि को उभारा। कुछ लोग तो यहां तक आरोप लगा रहे हैं कि अन्ना ने नई तकनीकी से लैस इस टीम का इस्तेमाल किया है। ये तो शुरुआत है.. अब रास्ते अलग-अलग हैं तो आरोप-प्रत्यारोप लगेंगे ही. छह महीने बाद ऐसा होगा कि दोनों एक दूसरे का मजाक उड़ाते नजर आएंगे.  
 एक बात और ध्यान देने योग्य है कि अन्ना ने इस विघटन के तुरंत बाद बाबा रामदेव से मुलाकात की..बाबा रामदेव ऐसे नवधनाढ़यों के प्रतिनिधि हैं,,जो योग की ओर मुखातिब हैं। या तो रोग की वजह से या फिर टशन के लिए। बाबा का संघ प्रेम जगजाहिर है. ऐसे में बाबा रामदेव से अन्ना हजारे की नजदीकियां फिर आशंकाओं को जन्म देती हैं। किरण बेदी भी बाबा रामदेव के पक्ष में दिखाई देती हैं। जो दिल्ली में बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ना चाहती हैं।. ऐसे में अन्ना हजारे अगर रानजीतिक पार्टी बनाने के आरोप में केजरीवाल से किनारा करते हैं तो उन्हें बाबा के कदमों से भी सावधान रहना चाहिए.
बहरहाल..अन्ना हजारे का ये रूख अरविंद केजरीवाल को चौंकाने वाला लग रहा है. हालांकि वो निराश नहीं हैं. अन्ना के आदर्शों पर पार्टी बनाना चाहते हैं। उन्होंने कहा है कि देश कठिन दौर से गुजर रहा है. देश बिक रहा है, उनसे जो बन पड़ेगा वो करेंगे। 

Wednesday, September 19, 2012

4th Dimension





सूचना क्रांति, सूचनाओं का विस्फोट, सूचना युग...मौजूदा दौर को इस तरह के तमाम विशेषणों से नवाजा जा रहा है।.   समाचार माध्यमों में समाज, सियासत, संस्कृति, साहित्य, सिनेमा से जुड़ी सूचनाओ की भरमार है। इन समाचारों के सामजिक सरोकार क्या हैं, समाज पर इसका क्या प्रभाव होता है. इन पर खूब बहस होती है।  बावजूद इसके जन सरोकार से जुड़े कई ऐसे मुद्दे और खबरें हैं, जो कैमरे और खबरनवीसों की नजरों से ओझल हो जाते हैं। आमतौर पर टीवी चैनलों पर समाचारों का चयन टीआरपी क मद्देनजर किया जता है।  इसमें प्रोफाइल और विजुअल की खास भूमिका होती है। ऐसे में जनसरोकार से जुड़े बहुत सारे मुद्दे छूट जाते हैं. । हमारी कोशिश उन अनछुए पहलुओं पर फोकस करने की होगी. हमारा मकसद इस बौद्धिक जुगाली में उन्हें भी शामिल करना है जो अब तक वंचित हैं, उपेक्षित हैं। 


  

      मीडिया के संदर्भ में आमतौर पर कहा जाता है कि ये लोकतंत्र का चौथा खंभा है। लोकशाही की इमारत विधायिका, न्याय पालिका, कार्यपालिका और मीडिया पर टिकी हुई है। मतलब मीडिया की भूमिका बाकी तीनों के बराबर है। लेकिन आज मीडिया का रोल इससे आगे भी है. मीडिया जम्हूरियत के इन हिस्सों की ख़बर भी लेता है.. इसीलिए ये है डेमोक्रेसी का  4th Dimension